अधिकतर लोगों का यह विचार होता है कि सुख का मूल स्त्रोत सांसारिक भोग-विलास में छिपा होता है न कि आध्यात्मिक जीवन जीने में। इसलिए हम अपना अधिकतर समय सांसारिक भोग-विलास और विषय-वासना की खोज में बिता देते हैं। यह असंभव है कि संसार में रह कर भौतिक गतिविधियों में शामिल न हुआ जाए। सच तो यह है कि धन-संपत्ति अर्जित करना कोई पाप नहीं, बल्कि यह जीवन यापन के लिए जरूरी भी है।
यजुर्वेद में कहा गया है - तेन व्यक्तेनभुंजीथाअर्थात संसार को भोगो, परन्तु निर्लिप्त होकर, निस्संग होकर, निष्काम भाव से। वास्तव में मनुष्य को प्रत्येक प्रकार के भोग की आज्ञा है। वह भोग अवश्य करे, परन्तु इसे ईश्वर का प्रसाद समझ कर भोग करे। ईशा वास्यमिदं्सर्वमतुम्हारा कुछ भी नहीं है, जो कुछ है सब उसी ईश्वर का है। लेकिन एक आम इनसान सांसारिक कार्यो में उलझकर भी अपने जीवन को आध्यात्मिक सांचे में ढाल ले, तो उसे अंत में सच्चा सुख मिल सकता है। अर्थात, आप सांसारिक सुख भोगते जाएं, परंतु त्याग भाव से। गीता का अनासक्ति योग और कर्मयोग भी इसी धारणा पर आधारित है।
मनुष्य जीवन के दो पहलू होते हैं- एक बाह्य जीवन तथा दूसरा आंतरिक अर्थात आत्मिक जीवन। सच तो यह है कि भौतिक जीवन को ही प्रमुख मानकर सुखी नहीं रहा जा सकता। सच्चा सुख आध्यात्मिक जीवन जीने से ही मिलता है। आध्यात्मिक जीवन जीने वाले व्यक्ति दुख में भी सुख ढूंढ लेते हैं। दरअसल, आत्म संतोष ही सुख का वास्तविक स्वरूप है। ऐसा दिव्य सुख संसार की भोग वासनाओं में लिप्त रहने से कहां संभव है? यह तो विषयों से ऊपर उठकर आध्यात्मिक जीवन अपनाने से ही प्राप्त हो सकता है।
अब प्रश्न यह है कि आध्यात्मिक जीवन क्या है? तो इसका उत्तर यह है कि लोकहित के लिए जीवन जीना ही आध्यात्मिक जीवन है। तृष्णा, वासना, स्वार्थ आदि भावों से ऊपर उठकर परमार्थ, परहित और परोपकार में संलग्न रहना ही आध्यात्मिक जीवन माना गया है। स्वार्थ में अंधे होकर दूसरों का अधिकार छीनना, अविश्वास, निन्दा, घृणा आदि भावनाओं से भरा जीवन जीना नरक के समान माना गया है।
ऋषि-मुनि इस विषय पर हमें सतर्क करते हैं कि जो अज्ञानतावश इस प्रकार के जीवन को अपना लेते हैं, वे न केवल इस लोक में दुखी रहते हैं, बल्कि परलोक में भी उन्हें सुख -शांति की तलाश में भटकना पडता है। जब हमारा व्यक्तित्व निर्मल और निर्दोष होगा, तभी आध्यात्मिक भाव की सिद्धि सरलता से प्राप्त हो सकेगी।
दरअसल, हमारे जीवन का ध्येय आनंद है। लेकिन आनंद प्राप्त करने के लिए मनुष्य को कोई पाप कार्य नहीं करना चाहिए। वास्तव में लौकिक कामनाओं की पूर्ति के लिए किए जाने वाले कार्य का सुख क्षणभंगुर होता है, लेकिन जीवन के वास्तविक सुख के स्त्रोत अध्यात्म को पाने के लिए मनुष्य को साधना करनी पडती है। आध्यात्मिक भाव की प्राप्ति तभी हो सकती है, जब मनुष्य अपने अंतर्मन तथा बाह्यमनदोनों को पवित्र और उज्जवलबनाए रखे। दरअसल, आध्यात्मिक सुख पाने के लिए हमें स्वार्थ, विडंबना और प्रवंचनापूर्णगतिविधियों को त्यागना होगा और तन-मन-कर्म से अध्यात्म की ओर मुडना होगा, तभी हमें सच्चा सुख मिल पाएगा।